मानवी शरीर असंख्य स्रोतसों से बना हुआ है यह एक ज्ञात बात है। यह स्रोतस् शरीर पदार्थों को एक भाग से दुसरे भाग में वहन करनेवाली मात्र नालियाँ नहीं है। यह वो मार्ग है जिनमें से गुजरते हुए शरीर घटकों में बदलाव होते जाते हैं। यह वो अयन है जो परिणाम आपद्यमान धातुओं का वहन करते हैं। अंततः इन धातुओं का पूर्ण परिणमन हो जाता है।
इन स्रोतसों से ही पुरा शरीर बनता है। यद्यपि परिणत होते हुए धातुओं का वहन करना यह सब स्रोतसों का सामान्य कर्म है, फिर भी हर एक धातु से सम्बन्धित स्रोतों के कुछ अलग कर्म होते हैं। अतः जिस धातु का वहन इन सातसों में से होता है उसके अनुसार इनके भेद किए जाते हैं। इसीसे रसवह स्रोतस्, रक्तवह स्रोतस् आदि नाम दिए गए है। इससे विपरीत, दोष पुरे शरीर में सारे स्रोतसों में से भ्रमण करते हैं।
इन्ही स्रातसों में से शरीर के हर एक पेशी का पोषण होता है इसलिए इन स्रोतसों का स्वास्थ्य अबाधित रखना अनिवार्य है। आयुर्वेद में विस्तार से स्रोतसों के मूलस्थान, दुष्टी हेतु, दुष्टी लक्षण वर्णन किए हैं। हर स्रोतस् के चिकित्सा सूत्र का भी वर्णन किया है।
हर व्याधि की सम्प्राप्ति में न सिर्फ दोष प्रकोप, लेकिन स्रोतस् दुष्टी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। अतः किसी भी व्याधि की चिकित्सा निश्चित करने से पहले व्याधि सम्प्राप्ति में सहभागी दुष्ट स्रोतस् तथा प्रकुपित दोषों की निश्चिती करनी पडती है। अतः व्याधि निश्चिती तथा चिकित्सा करते समय, स्रोतस् विज्ञान का पुरा ज्ञान होना महत्वपुर्ण है।
स्रोतस् शृंखला में हम ऋतु के अनुसार स्रोतसों में होने वाली दुष्टी का अभ्यास करने का प्रयास करेंगें।
ग्रीष्म ऋतु में बढ़ी हुई गरमी के कारण शरीर में जलांश की कमी हो जाती है। शरीर में जलीय अंश कम होने से सामान्यतः उदकवह स्रोतस, स्वेदवह स्रोतस तथा मूत्रवह स्रोतसों पर असर पड़ता है। अतः स्रोतसशृंखला के पहले अंक में इन स्रोतसों से जुडे व्याधि तथा लक्षणों के बारे में चर्चा करेंगें। इन व्याधियों की चिकित्सा में उपयुक्त महत्वपूर्ण औषधों के बारे में भी चर्चा करेंगें। हमें आशा है की आप को इस शृंखला से रुग्ण चिकित्सा में मदद होगी।
स्रोतस् संकल्पना
मनुष्य शरीर असंख्य पेशीओं का एक समूह है। यह पेशियाँ तथा पेशी समूहों से बने अवयव एक दूसरे से पृथक् या वियुक्त नहीं हैं। हर एक पेशी दूसरी पेशीओं से जुडी रहती है तथा उनमें शरीर धातुओं का आवागमन होते रहता है। यह नालियाँ स्रोतस् स्वरुप होती है। यह स्रोतस् नलिका स्वरुप में होते हुए एक दुसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए आचार्य कहते हैं स्रोतोमयं अयं पुरुषः ।
पुरुष अर्थात् संपूर्ण शरीर ही स्रोतोमय है।
स्रोतस् शब्द की निरुक्ति करते हुए चरकाचार्य कहते हैं,
स्रवणात् स्रोतांसि
•। च. सू. ३०/१२
अर्थात् वह अवकाश जिसमें सातत्य से स्रवण तथा परिवहन होते रहता है उसे स्रोतस् कहते हैं। इसका विवरण करते हुए चक्रपाणिजी कहते हैं –
स्रवणात् इति रसादेः पोषस्य स्रवणात् ।
पोष्य धातुओं का जहाँ पर निरंतर स्रवण और वहन होता है, उसे स्रोतस् कहते हैं। पोष्य धातुओं से पोषण होने के बाद धातु स्थिर हो जाता है। जो अवकाश या नलिकाएँ इन पोष्य धातुओंका स्रवण करते हैं, उन्हें स्रोतस् कहते हैं।
स्रोतांसि खलु परिणाम आपद्यमानानां धातुनाम् अभिवाहीनि भवन्ति अयनार्थेन। च. वि. ५/३
अर्थात् स्रोतस् यह अयन या मार्ग है, जो परिणाम को प्राप्त होने वाली धातुओं का वहन करता है।
स्रोतसों के स्वरुप
स्वधातु समवर्णानि वृत्त स्थुल अणुनि च ।
स्रोतांसि दीर्घाण्याकृत्या प्रतान सदृशानि च ।। च. वि. ५/२५
स्रोतस् स्वधातु के समान वर्ण वाले होते है। यह वृत्त (गोल) स्थूल (बडे आकार के), अणु (सूक्ष्म), तथा दीर्घ आकृति वाले और जाल जैसे (प्रतान सदृश) अनेक आकार के अवकाश होते है।
यह स्रोतस् अपरिसंख्येय अर्थात् जिसकी गणना नहीं की जा सकती, लेकिन चिकित्सा की दृष्टि से इनके स्थूलरुप से कुछ भेद आचार्यों ने किए हैं।
स्रोतसों के प्रकार
कार्य के भेद से स्रोतसों के दो प्रकार होते हैं, बहिर्मुख एवं अंतर्मुख स्रोतस्
१. बहिर्मुख स्रोतस् –
नासा (२), नयन (२), कर्ण (२), मेहन (१), गुद (१), मुख (१) मिलकर ९ बहिर्मुख स्रोतस् हैं। इनके अलावा स्त्री शरीर में २ स्तन्यवह स्रोतस् तथा १ आर्तववह स्रोतस् अधिक होते हैं। अतः पुरुष शरीर में नौ तथा स्त्री शरीर में बारह बहिर्मुख स्रोतस् होते हैं। (अ.ह.शा.३/४०)
२. अंतर्मुख स्रोतस् –
प्राणवह, उदकवह, अन्नवह, रसबह, रक्तवह, मांसवह, मेदवह, अस्थिवह, मज्जावह, शुक्रवह, मूत्रवह, पुरीषवह और स्वेदवह स्रोतस् यह तेरह अंतर्मुख स्रोतस् होते हैं। अतीन्द्रिय मन, आत्मा आदि सर्व शरीर में संचार करते हैं, इनके लिए संपूर्ण चेतनामय शरीर मार्गरुप होता है। इनके अलाबा तीनों दोषों का भी पूर्ण शरीर में संचार होने के कारण उनके अलग स्रोतसों का बर्णन नहीं किया है।
स्रोतसों का शरीर स्वास्थ में महत्व
यह स्रोतस् सदैव अवरोधरहित या वैगुण्यरहित रहना अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। दोष तथा पोष्य धातुओं का वहन इन्हीं स्रोतसों में से होता रहता है। अगर इनके बहन में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो जाए, तो विकार की उत्पत्ति हो जाती है। इसी का वर्णन करते हुए ग्रंथकार कहते है –
कुपितानां हि दोषाणां शरीरे परिधावताम् ।
यत्र सङ्गगः ख वैगुण्यात् व्याधिस्तत्रोपजायते ।। सु.सु. २४/१०
कुपित हुए दोष शरीर में संचार करते रहते हैं। जहाँ कहीं ख वैगुण्य हो (स्रोतस् अवरोध) वहाँ पर उनकी गती को बाधा उत्पन्न होती है। अतः वहीं उनका संचय होने लगता है और स्थानसंश्रय होते हुए व्याधि उत्पन्न होती है।
अहोरात्र में तथा विविध ऋतुओं के अनुसार प्राकृतिक रुप से दोषों की प्रकोपवस्था आती रहती है। जब स्रोतसों में कोई दुष्टि नहीं होती तब दोष प्रकोपावस्था में संचारी होते हुए भी व्याधि की उत्पत्ति नहीं होती। लेकिन अगर स्रोतस् स्वस्थ नही हैं तो अल्पतः प्रकुपित दोष भी व्याधि उत्पत्ति कर देते है।
यही कारण है, की कुछ लोग वर्षा ऋतु में वातव्याधि या शरद ऋतु में पित्त के विकारों से पीडित होते
रहते हैं।
इसी बात को समझाते हुए आचार्य वाग्भट कहते हैं,
तानि दुष्टानि रोगाय विशुद्धानि सुखाय च। अ. ह. शा. ३/४२ सुखाय इति आरोग्याय अरुणदत्त टीका
अर्थात् स्रोतसों की दुष्टी होने से रोग की उत्पत्ति होती है तथा स्रोतस् शुद्ध होने से आरोग्य की प्राप्ति होती है।
स्रोतस् दुष्टि के सामान्य कारण
आहारश्च विहराश्च यः स्यात् दोषगुणैः समः।
धातुभिः विगुणश्चापि स्रोतसां स प्रदूषकः ।। अ.ह. शा. ३/४४
ऐसा आहार विहार जो दोषों के गुणों के समान है और धातुओं के गुणों के विरुद्ध है तो उससे धातुघटित यह स्रोतस् दुष्ट हो जाते। हैं। अतः दोष प्रकुपित होकर धातुओं को दुष्ट करते हुए सोतोदुष्टि निर्माण करते हैं।
स्त्रोतस् दुष्टि के सामान्य लक्षण
अतिप्रवृत्ति सङ्गो वा सिराणां ग्रन्थयोऽपि वा। विमार्गगमनं चापि स्रोतसां दुष्टिलक्षणम् ।। च. वि. ५/२४
अतिप्रवृत्ति – रसादि पोष्य धातु तथा मूत्र, पुरीष आदि की अतिप्रवृत्ति।
सङ्ग – स्रोतसों में अवरोध उत्पन्न होना। वह धातु जिससे स्रोतस् निर्माण हुआ है, उसकी अप्राकृतिक स्वरूप की वृद्धि के कारण अथवा बाह्य कारण से होती है। इससे अप्रवृत्ति अथवा किंचित प्रवृत्ति यह लक्षण दिखते है।
सिराग्रंथि – सिराग्रंथि का निर्माण होना।
विमार्गगमन – स्रोतस् जिसका वहन करते हैं, उस घटक का सामान्य मार्ग से विचलित होकर विमार्ग गमन होना यह स्रोतो दुष्टि के सामान्य लक्षण हैं।
स्रोतस् और उनके मूलस्थान
स्रोतसों का वर्णन करते हुए आचायर्योंने मूलस्थानों का वर्णन किया है। प्रायः हर स्रोतस् के दो मूलस्थान बताए गए हैं।
मूलस्थानं इति प्रभवस्थानम्।
स्रोतसों के दुष्टी के लक्षण भी इन्ही मूलस्थानों पर अधिक प्रभाव डालते हैं। तथा रुग्ण परीक्षण करते
समय भी इन मूलस्थानों का परीक्षण अनिवार्य है।
चरक टीकाकर चक्रपाणिदत्त कहते हैं कि जैसे वृक्ष के मूल पर घाव करने से वृक्ष नष्ट हो जाता है वैसे ही मूलस्थान पर आघात होने से स्रोतसों को क्षति पहुंचती है। इसी सिद्धान्त को यदी चिकित्सा की दृष्टि से देखा जाए तो यही तात्पर्य निकलता है, कि यदि विकृत स्रोतस् के मूलस्थान की चिकित्सा की जाए तो उसका प्रभाव या लाभ पुरे स्रोतस् पर दिखाई देता है। स्रोतसों के मूलस्थानों से स्रोतसों की उत्पत्ति होती है। क्रियाशरीर की दुष्टिसे स्रोतसों के जो कार्य
वर्णित किए हैं उनमें महत्वपूर्ण भूमिका स्रोतोमूल की होती है। ग्रीष्म ऋतु मई तथा जून महीनों में होता है। इस ऋतु में गरमी सबसे अधिक होती है। सूर्य की किरनें सरल तथा अत्यंत तेज होती हैं। सभोवतालके वातावरण में अत्यधिक उष्मा रहती है।
इस अत्यंत गरम मौसम में शरीर का तापमान नियंत्रित रखने के लिए शरीर से पसीने के स्वरुप में हमेशा पानी बाहर जाते रहता है। इस कारण शरीर में अब् धातु का ऱ्हास होने लगता है। शरीर में अब् धातु से संबंधित तीन महत्वपूर्ण स्रोतस् हैं।