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Ayurvedic Medicine for fatty liver

हरड़, बहेड़ा, ऑवला, , सोंठ, मिर्च, पीपल, चित्रक- मूल, वायविडंग २ ।।- २ ॥ तोला, नागरमोथा १ ॥ तोला, पीपलामूल, देवदारु, दारुहल्दी, दालचीनी, चव्य- प्रत्येक १-१ तोला, शुद्ध शिलाजीत, स्वर्णमाक्षिक भस्म, रौप्यभस्म, लौह भस्म- प्रत्येक १००- १० तोला, मण्डूर भस्म २० तोला, मिश्री ३२ तोला- सबको बारीक पीसकर छान लें। – आ.प्र.

मात्रा और अनुपान- ३-३ रत्ती, दिन में दो बार, मूली के रस या गोमूत्र के साथ दें।
गुण और उपयोग- इसके सेवन से पाण्डु, कामला, यकृत् एवं प्लीहा के विकार, रक्त की कमी, सूजन, स्त्रियों के मासिक धर्म की गड़बड़ी आदि रोग अच्छे होते हैं। मलेरिया के बाद उत्पन्न एनीमिया की यह सबसे अच्छी दवा है। इससे खून की वृद्धि होकर शरीर की सब इन्द्रियाँ बलवान हो जाती हैं। बालकों के धनुर्वात एवं बालग्रह के लिए भी अत्युपयोगी है।
पाण्डु रोग- अधिक दिन बुखार आने या शीतज्वर- जाड़ा देकर बुखार आते रहने से शारीरिक रस- रक्तादि धातु एवं वात- पित्त, कफ तथा इनकी सहायक इन्द्रियों की शक्ति का क्षय हो जाने से शरीर की कान्ति ही बिगड़ जाती है। तथा- रक्त की कमी से शरीर पर कुछ-कुछ पीलापन, हृदय कमजोर, जठराग्नि मन्द, पाचन क्रिया में गड़बड़ी, शरीर कमजोर हो जाना, रक्ताणुओं की कमी के कारण, शरीर में जल- भाग की वृद्धि होने से शरीर पर शोथ, त्वचा रूक्ष और फीकी हो जाना, रक्त का संचार अच्छी तरह न होने से मन अनुत्साहित बना रहना, किसी काम में मन न लगना, न किसी काम को करने की इच्छा ही होना, यहाँ तक कि उठने बैठने में भी आलस्य जान पड़ना, हृदय में घबराहट, मुँह, हाथ, पैर, गाल और आँखों में सूजन इत्यादि लक्षण उत्पन्न होते हैं। ऐसी अवस्था में ताप्यादि लौह के उपयोग से बहुत शीघ्र लाभ होते देखा गया है, क्योंकि इस दवा का असर जठराग्नि, हृदय और रक्त पर विशेष होता है। इसके सेवन से ज्वर के कीटाणु दूर हो जाते हैं और पाचक पित्त उत्तेजित होकर जठराग्नि को प्रदीप्त कर देता है, जिससे खाये हुए पदार्थों का पाचन अच्छी तरह होने लगता है। फिर उत्तम रसरक्तादि बन कर रक्ताणुओं की वृद्धि हो, शरीरस्थ दूषित जलभाग सूख जाने पर शोथ भी नष्ट हो जाता है और शारीरिक शक्ति की भी वृद्धि होने लगती है। शरीर में एक प्रकार की नवीन स्फूर्ति पैदा हो जाती तथा
रोगी बहुत शीघ्र स्वस्थ हो जाता है। कामला रोग- पाण्डुरोगावस्था में गर्म पदार्थ अर्थात पित्त बढ़ाने वाले पदार्थों के सेवन करने से
पित्त, प्रकुपित हो, मांस और रक्त को दूषित कर, कामला रोग उत्पन्न करता है। इसमें सम्पूर्ण शरीर तथा ऑख, मल, मूत्र और त्वचा पीली हो जाती, कभी-कभी मल का रंग सफेद हो जाता, dastपतला और कफ विशेष होने से झाग (फेन) युक्त आता है। अन्न में अरुचि, मन्दाग्नि आदि लक्षण हो जाते है, ऐसी हालत में ताप्यादि लौह का उपयोग करना बहुत लाभदायक होता है, क्योंकि यह लौह सौम्य- गुण- प्रधान अर्थात् पित्तशामक, अग्निप्रदीपक और रक्ताणुबर्द्धक होने के कारण कामला में बहुत शीघ्र लाभ करता है। परन्तु जिस कामला में यकृत विकृत होकर कमजोर पड़ गया हो, उसयमें इस लौह का
असर कम होता है।
प्रमेह रोग- शारीरिक कमजोरी अथवा बुढ़ापे के कारण जब शारीरिक इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, तब मूत्र पिण्ड भी कमजोर हो जाता है, जिससे बार-बार पेशाब करना पड़ता है, साथ ही रक्त भी कभी-कभी विकृत हो जाता है, जिससे प्रमेह, पीड़िका आदि उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं। इन विकारों को दूर करने के लिए ताप्यादि लौह का उपयोग करना अच्छा है, क्योंकि इसमें शिलाजीत का भी मिश्रण है, जो रक्त शोधक और मूत्राशय को बल देने वाला तथा शक्तिबर्द्धक है। यह दीपन- पाचन भी है। आँतों की निर्बलता दूर करने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। ऑतों की निर्बलता के कारण ही दस्त- कब्ज हो जाता है। जिससे मन्दाग्नि, भूख न लगना, अरुचि, मल- संचय आदि विकार उत्पन्न होते हैं, ऐसी अवस्था में यदि विरेचक औषधियों द्वारा मल-संचय दूर करने का यत्न किया जाय तो सर्वथा निष्फल हो जाता है, क्योंकि विरेचक औषधियाँ आँतों को और कमजोर बना देती हैं। परिणाम यह होता है कि वह औषधि पेट में ही रह जाती और वहाँ सड़ कर एक प्रकार की दूषित गैस की उत्पत्ति कर देती है, जिससे आम संचय और भी बढ़ जाता तथा साथ ही बद्धकोष्ठता भी हो जाती है। ऐसी स्थिति में इस तरह की दवा का आयो

जन करना अच्छा होता है, जो ऑतों को बलवान बना उत्तेजित करें। इस कार्य के लिए ताप्यादि लौह बहुत उपयोगी है। यह धीरे- धीरे ऑतों को सबल बना देता और संचित मल को भी पिघला कर निकाल देता है, फिर क्रमशः आंते सबल हो जाती हैं और मल- संचय दूर हो, बद्धकोष्ठता मिट जाती है।
कभी-कभी पित्त- प्रकोप के कारण फुफ्फुसों के भीतर दाह उत्पन्न हो जाता है, इसमें हृदय कमजोर हो जाता और कफ सूख कर छाती में बैठ जाता तथा सूखी खांसी होने लगती है। कभी-कभी तो प्रकुपित पित्त के कारण जलन इतनी बढ़ जाती है कि जितना भी पानी पिया जाय, तृप्ति ही नहीं होती। इसमें सूखी खाँमी देर तक होती रहती है। खाँसते- खाँसते पित्त वमन द्वारा निकलने पर कुछ देर के लिए शान्ति मिल जाती है। ज्यादे खाँसी होने की वजह से मुँह की नसें फूल सी जाती हैं। जिससे चेहरा लाल- उभरा हुआ (फूला हुआ) मालूम पड़ता है। ऐसी दशा में ताप्यादि लौह च्यवनप्राश और सितोपलादि चूर्ण घी अथवा दाड़िमावलेह या शर्बत अनार के साथ देना चाहिए। शोथ रोग- किसी रोग के कारण या स्वतन्त्र रूप से शरीर में रक्त की कमी से शरीर सूख गया हो तो ताप्यादि लौह के उपयोग से रक्ताणुओं की वृद्धि हो, शरीर का जलभाग सूखकर शोथ दूर हो जाता है।

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