आयुर्वेद के मूल द्रव्य (त्रिदोष )Basic Ayurveda
महर्षि कपिलदेवजी ने सृष्टिनिर्माण को पुरुष और प्रकृति के संगम का परिणाम माना है। उनके मतानुसार, पुरुष निर्लेप, निर्गुण और अपरिणामी है, जबकि प्रकृति जड़ और परिणामी है, जो क्षण-क्षण में नया रूप धारण करती है। ये प्रकृति और पुरुष दोनों ही अचिन्त्य, अनादि और अनन्त हैं।
प्रकृति की त्रिगुणमयी महाशक्ति
कपिलदेवजी ने प्रकृति को त्रिगुणमयी महाशक्ति माना है, अर्थात् सृष्टि के कार्य-परिणाम-रूपांतर के अनुरूप सत्व, रज, और तम, इन तीन गुणों को स्वीकार किया है। ये तीनों गुण कभी पृथक् नहीं होते, बल्कि सम्मिलित रूप में ही रहते हैं।
महत्तत्व से पंचभूतात्मक रूपांतरण
यह त्रिगुणात्मक प्रकृति महत्तत्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा और फिर पंचभूतात्मक रूप में परिणत होती है। इस प्रकार वही प्रकृति पंचभूतात्मक स्थूल रूपांतर होने पर सोम, सूर्य और अनिल (विद्युत्प्रधान वायु) भाव में परिणत होती है और प्रतीयमान विश्व (ब्रह्मांड) को धारण करती है। पुनः वही प्रकृति कफ, पित्त, और वात भाव में परिणत होकर प्राणिमात्र के शरीर को धारण करती है।
प्रकृति के रूपांतर की अनवरत प्रक्रिया
जिस तरह पृथ्वी द्रव्य (मिट्टी) प्रकृति भाव का त्याग किए बिना अन्न, फल, काष्ठ, लोहा, पत्थर, वस्त्र, रबर आदि विविध कार्यों में रूपांतर हो जाती है, उसी तरह सोम, सूर्य और अनिल का कफ, पित्त, और वात रूप में रूपांतर होता है।
प्रकृति का मूल स्वरूप
इस प्रकार करोड़ों बार रूपांतर होने पर भी मूलभूत प्रकृति अपने यथार्थ स्वरूप को नहीं त्यागती। इस हेतु इसका कदापि अपक्षय या विनाश नहीं होता। इस वास्तविक सिद्धांत को स्वीकार कर भगवान् धन्वंतरिजी कहते हैं:
विसर्गादानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा । धारयन्ति जगद्धेहं कफपित्तानिलास्तथा ।। (सु. सू. अ. २१)
शरीर के दोषों का कार्य एवं उनका संतुलन
यह देह वात, पित्त, कफ, तीनों दोषों के संमिश्रण से बना है। अर्थात त्रिदोष ही देह का उपादान कारण है। यदि देह में से इन तीनों दोषों को पृथक् किया जाए, तो कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
वात का प्रधानता और अन्य दोषों का स्थान
कतिपय विद्वानों ने वात, पित्त, कफ को तिल में तैल के समान व्यापक माना है और देह और त्रिदोष का संबंध आधार-आधेय रूप कहा है, किन्तु यह उनका कथन सदोष है। इन दोषों में वायु को ही प्रधान माना गया है और शेष दोष गौण हैं।
जीवित अवस्था और मृत्यु में दोषों की क्रिया
जीवित अवस्था में तीनों दोषों की क्रिया होती रहती है। मृत्यु होने पर प्राणवायु, जो दूसरे दोष और धातुओं की क्रिया कराता है, वह देह से पृथक् हो जाता है।
वायु का स्वभाव और महत्व
वायु (प्राणवायु) के संचार से संसार में अवस्थित दृश्य और अदृश्य, सेंद्रिय और निरिंद्रिय सर्व कार्य द्रव्यों के भीतर अनिश्चित परिवर्तन रूप में होता रहता है। यह क्रिया इतनी सूक्ष्म होती रहती है कि किसी यन्त्र विशेष की सहायता से भी विदित नहीं हो सकती, फिर भी होती रहती है।
शरीर के विकास और विघटन की प्रक्रिया
वात, पित्त, कफ इन तीनों दोषों की क्रियाएँ चिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। वात का कार्य विशेष रूप से फेंकना अथवा वियोजन करना है। वह दूषित अणुओं को स्थान से बाहर निकालता है। पित्त अणुओं का पचन या सात्म्यकरण करता है। कफ रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए विसर्ग-उत्पत्ति का संग्रह करता है।
स्वास्थ्य और रोगोत्पत्ति का सिद्धांत
ये तीनों क्रियाएँ जब तक समभाव से चलती रहती हैं, तब तक स्वास्थ्य बना रहता है। जब अत्यधिक अपव्यय आहार-विहार या कीटाणुओं के प्रबल आक्रमण के कारण होता है, तब पहले इन वात, पित्त, कफात्मक सूक्ष्मतम घटकों का साम्य नष्ट होता है, विनाश क्रिया सबल बनती और रोगोत्पत्ति होती है।
वात, पित्त, कफ और धातु का संबंध
वात, पित्त और कफ नामक दोषों के साथ सप्तधातु मिलकर इस देह को धारण करते हैं। यहाँ कफ, रस, पित्त और रक्तधातु के संयोग को प्रमाण माना गया है। इससे सिद्ध होता है कि कफ, रस, पित्त और रक्तधातु का संयोग है। सप्तधातुओं का निर्माण अन्न, जल, वायु के सायुज्य से होता है।
सूक्ष्म जीवाणुओं का प्रभाव
इस भूमण्डल पर सूक्ष्म जीवाणुओं की अनेक जातियाँ अवस्थित हैं। अणुवीक्षण यन्त्र की सहायता से इन जीवाणुओं की विभिन्न जातियों का परिचय मिला है। जीवाणु जातियों के दो मुख्य विभाग होते हैं: वैद्य जीवाणु (Microbes) और अवेद्य जीवाणु (Ultra microbes)।
त्रिदोष सिद्धांत का महत्व
वायु की गति सामान्यतः विरुद्ध नहीं होती, क्योंकि वायु अति बलवान् है और वह प्रकुपित होने पर तत्काल सारे शरीर में हलचल मचा देती है।
त्रिदोषों की क्रियात्मक व्याख्या
यदि त्रिदोष को नूतन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संक्षेप में व्याख्यायित किया जाए, तो:
वात: यह वहन करने वाले प्राणतत्व (विद्युत) के साथ वातधातु और उसके विकार से उत्पन्न वायु (अंतर आदि अवयवों में) को दूषित वात के रूप में देख सकते हैं।
पित्त: यह आमाशय, यकृत आदि अवयवों में उत्पन्न और विविध ग्रंथियों के आग्नेय रस को विकृत करता है, जिससे पित्त मल बनता है।
कफ: यह आमाशय आदि की श्लेष्मिक कलाओं से उत्पन्न श्लेष्मा (रस) को कफधातु के रूप में पहचान सकते हैं, जो देह का पोषक होता है, तथा विकृत रस को कफ मल के रूप में देख सकते हैं।
रोग और दोषों का संतुलन
स्वस्थ अवस्था में वात, पित्त, कफ तीनों देह के संरक्षक बनते हैं। किन्तु रुग्णावस्था में इन दोषों में वैगुण्यता आ जाती है और वे देह की रक्षा करने में असमर्थ हो जाते हैं।
विकृति-प्रकार के आधार पर रोग विभाजन
इस प्रकार, प्रत्येक रोग की विकृति-प्रकार के आधार पर उसे आशुकारी और चिरकारी इन दो अवस्थाओं में विभाजित किया जा सकता है।
त्रिदोष सिद्धांत का विस्तृत विवेचन
उपरोक्त विवरण के अतिरिक्त, “त्रिदोष” आयुर्वेद का मूलभूत सिद्धांत है, जिसकी महत्ता को समझने के लिए गहन अध्ययन और मनन अत्यंत आवश्यक है। पंच महाभूत और त्रिदोष का संबंध, इनकी धातु और दोष संज्ञा के कारण, दोनों के उत्पत्ति भेद और स्थान, इनके गुण और कार्य का विस्तृत विवेचन आदि गहन विवादास्पद विषय हैं।