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आयुर्वेद में कायचिकित्सा का महत्व

आयुर्वेद एक जीवन शास्त्र है। स्वस्थ्य के स्वास्थ्य की रक्षा तथा आतुर के विकार का प्रशमन, ये ही आयुर्वेद के दो मुख्य उद्देश्य हैं। कायचिकित्सा अष्टांङ्ग आयुर्वेद का मुख्य अंग है। हमेशा से ही यह आयुर्वेद का सबसे महत्वपूर्ण एवं जीवन्त अंग रहा है। ‘काय’ शब्द सर्वशरीर, अन्तराग्नि तथा सम्पूर्ण चयापचय व्यापार को परिलक्षित करता है। काय चिकित्सा में आहार व अन्तराग्नि को विशेष महत्व दिया गया है। आहार से ही शरीर का निर्माण होता है। भुक्त आहार का सम्यक पाचन एवं उत्तरोत्तर धातु निर्माण व्यवस्थित अग्नि व्यापार पर पूर्ण रूप से आश्रित है। आचार्य चरक ने अग्नि के महत्व को प्रतिपादित करते हुए अग्नि को ही जीवन कहा है। अग्नि के विकृत होने से अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। वर्तमान समय में समाज में अनेक नवीन व्याधियां नवीन नामों से तेजी से बढ़ रही हैं। इनमें से अनेक व्याधियां प्रचलित नाम से आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित नहीं हैं। जिसके कारण युवा आयुर्वेदिक चिकित्सक एवं विद्यार्थियों के मस्तिष्क में समय-समय पर अनेक भ्रान्तियां उत्पन्न होती हैं। इस सन्दर्भ में आचार्य चरक ने स्पष्ट किया है कि यदि सुज्ञानी चिकित्सक किसी रोग का नामकरण न कर पाए तो उसे इस विषय में लज्जित नहीं होना चाहिए, वरन् रोग की प्रकृति, अधिष्ठान, समुत्थान, दोष-दूष्य समूच्छना आदि का ज्ञान कर चिकित्सा कार्य करना चाहिए।
विकारनामाकुशलो न जिह्वीयात् कदाचन। न हि सर्व विकाराणां नामतोऽस्ति ध्रुवा स्थितिः ॥
(चरक सूत्र 18/44) आयुर्वेद सिद्धान्तों के अनुसार किसी भी रोग की चिकित्सा निम्न तीन प्रकार की चिकित्सा विधियों से सम्पादित की जा सकती है-

  1. दैवव्यपाश्रय चिकित्सा-इस विधि में मुख्यतः दैव, ग्रह नक्षत्र आदि का विचार कर मणिधारण, बलि, होम, मन्त्रादि द्वारा नानाविध विशेषकर पूर्वजन्म कर्मकृत कर्मज व्याधियों की चिकित्सा की जाती है।
  2. युक्ति व्यपाश्रय चिकित्सा-इस विधि में आयुर्वेद के प्रमुख सिद्धान्तों के आधार पर सामान्य विशेष के प्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। इस विधि के अन्तर्गत प्रधान रूप से दो कर्म सम्पादित किए जाते हैं(ii) संशमन-औषध, अन्न एवं विहार का युक्तिपूर्वक प्रयोग।
  3. सत्वावजय चिकित्सा-यह मानस चिकित्सा विधि है जिसमें मन को अहितार्थों से हटाकर हितकर अर्थों की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया जाता है।
    अधिकांश आधुनिक चिकित्सकों में विभिन्न प्रयोगशालीय परीक्षणों के आधार पर रोग विनिश्चय (Diagnosis) कर रोग चिकित्सा करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। अनेक बार गलत प्रयोगशालीच परीक्षणों की रिपोर्टस के आधार पर रोगी का रोग विनिश्चय भी गलत हो जाता है और इसीलिए ऐसे रोगी में की गई चिकित्सा का लाभ भी रोगी को नहीं मिलता। आयुर्वेद सिद्धान्तानुसार “रोग एवं रोगी परीक्षा” कर रोगी का रोग विनिश्चय कर चिकित्सा प्रारम्भ करने से ऐसी विषम परिस्थितियों से बचा जा सकता है।

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