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प्राचीन आचार्यों का विज्ञान और वर्तमान यथार्थ

हमारे आचार्यों के अद्वितीय सूत्र

हमारे प्राचीन आचार्यों ने जिन विषयों पर गहन शोध और अन्वेषण करके जो सूत्र रूप में लिखा है, वह अक्षरशः सत्य माना जाता है। उनके ज्ञान को आज के यथार्थवादी वैज्ञानिक, जो निरंतर परिश्रम कर रहे हैं, अभी तक पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सके हैं। सत्यप्रिय वैज्ञानिकों ने आचार्यों के सूत्रों की व्याख्या करते हुए प्रत्यक्ष प्रमाणों से सिद्ध किया है और उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।

तीन प्रकार के विज्ञान में निपुण हमारे ऋषि-महर्षि

हमारे ऋषि-महर्षि आध्यात्मिक, आधिभौतिक, और आधिदैविक—इन तीनों प्रकार के ज्ञान के वास्तविक विज्ञानी थे। इस विषय पर आज के अधिकांश विद्वानों का एकमत है कि आधुनिक पश्चिमी विद्वानों ने भी हमारे महर्षियों द्वारा निर्मित सूत्रों को समझकर उनके आधार पर अपने शोध आरंभ किए हैं। उनके अनुसंधान का परिणाम यह रहा कि उन्होंने विज्ञान में पर्याप्त सफलता प्राप्त की और विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई। किन्तु यह बहुत दुःख की बात है कि हम अपने आचार्यों के ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहे हैं।

आयुर्वेद का महत्व और आधुनिक विज्ञान से समन्वय

हमारा आयुर्वेद समस्त जगत के कल्याण के लिए है। कहा भी गया है, “नार्थार्थ नापि कामार्थमथ भूतदयाम्प्रति,” अर्थात आयुर्वेद का उद्देश्य भौतिक लाभ नहीं, बल्कि समग्र भूतों की दया और कल्याण है। हमें अपने ज्ञान को पूर्ण रूप से समृद्ध करना चाहिए, खासकर चिकित्सा में उपयोगी पदार्थों जैसे रसों की खोज में। हमें यह भी जानने की आवश्यकता है कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने आयुर्वेद के सिद्धांतों के साथ कितना समन्वय स्थापित किया है।

पारद: एक अद्वितीय खनिज

पारद, जिसे अंग्रेजी में “क्विक सिल्वर” कहते हैं, एक ऐसा पदार्थ है जो साधारण तापमान पर द्रव रूप में पाया जाता है। इसका स्वरूप पिघली हुई चांदी के समान होता है, जिसे आयुर्वेद में “गलद्रौप्यनिभम्” कहा गया है। कभी-कभी पारद मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है, लेकिन अधिकतर यह हिंगुल नामक खनिज से निकाला जाता है।

पारद की ऐतिहासिक खोज

भारत के अलावा अन्य देशों में भी हिंगुल से पारद निकालने के प्रमाण मिलते हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में थियोफ्रास्टस नामक विद्वान ने लिखा कि ताम्र चूर्ण और हिंगुल को सिरके के साथ पीसकर पारद निकाला जाता था। इसी प्रकार, डायस्कोरिडीज नामक विद्वान ने भी हिंगुल से पारद निकालने की विधि अपनाई थी। पाश्चात्य देशों में 1566 ई. में पहली बार “पेरू” में हिंगुल का अस्तित्व ज्ञात हुआ।

पारद की प्राप्ति और इसके स्रोत

पारद विभिन्न प्रकार के जलज और आग्नेय पाषाणों में पाया जाता है। यह अधिकतर आग्नेय पाषाण-खंडों के समीप ही मिलता है। भू-गर्भ के अंतराल से उष्ण जल के साथ पारद पृथ्वी की दरारों में जमा होता है। अमेरिका के भू-गर्भ शास्त्रियों का मत है कि पारद अक्सर ज्वालामुखी पाषाणों के समीप पाया जाता है, लेकिन कुछ जगहों पर इसे गहराई में भी पाया गया है, जैसे स्पेन और अमेरिका के कैलिफोर्निया में।

पारद की उत्पत्ति

आयुर्वेद और रसशास्त्र के ग्रंथों में पारद की उत्पत्ति का वर्णन पौराणिक ढंग से किया गया है। हिमालय पर्वत पर जब जड़ और चेतन शक्ति का संघर्ष होता है, तो पृथ्वी के नीचे ज्वालामुखी का उद्भव होता है और पारद प्रकट होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, ज्वालामुखी के पिघलने पर उसके अंदर के उड़नशील खनिज उष्ण जल के साथ मिलकर वाष्प के रूप में निकलते हैं और जम जाते हैं।

पारदीय खनिज और उनका महत्व

पारद विभिन्न खनिजों में पाया जाता है, जिनमें प्रमुख है हिंगुल (सिनावर), जिसका रंग गुड़हल के फूल जैसा लाल होता है। यह पारद और गंधक का यौगिक है। हिंगुल से पारद निकालने की विधियां प्राचीन काल से प्रचलित हैं और यह आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

निष्कर्ष

प्राचीन आचार्यों द्वारा दिए गए सूत्र आज भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। पारद जैसे खनिजों पर उनका शोध और उसके चिकित्सीय गुणों का वर्णन अद्वितीय है। हमें अपने इस प्राचीन ज्ञान को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ समन्वयित करके उपयोग में लाना चाहिए, ताकि समाज का कल्याण हो सके।

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