आयुर्वेद की परिभाषा, उत्पति और इतिहास भाग २
“यह निर्विवाद सत्य है कि सत्य को कोई छिपा नहीं सकता। अंतिम निर्णय भी वही होता है, जो सत्य पर आधारित होता है। सारांश यह है कि सत्य की सदैव विजय होती है। ‘सत्ये नास्ति भयं कचित’ इस उक्ति के अनुसार सत्य को किसी भी प्रकार का भय नहीं होता। यह उक्ति हमारे आयुर्वेद के लिए भी चरितार्थ हो रही है। चाहे कोई कितनी भी निंदा करे, अंत में उसे यह मानना ही पड़ेगा कि आयुर्वेद के सिद्धांत स्थिर और सत्य हैं। यूरोप जैसे शीत कटिबंध क्षेत्रों के निवासियों के आहार-विहार को ध्यान में रखकर जितनी भी एलोपैथिक औषधियाँ बनाई गई हैं, वे उनके लिए तो लाभकारी हो सकती हैं, लेकिन हमारे महर्षियों का यह कथन पूर्णत: सत्य है कि – ‘यस्य देशस्य यो जन्तुस्तज्जं तस्यौषधं हितम्।’
अर्थात, जो प्राणी जहां जन्मा है, उसके लिए उसी देश की औषधि, आहार और विहार लाभकारी होते हैं। भारतीय आर्यों के लिए भारतीय औषधि, अन्न और विहार ही हितकारी हैं। यही युक्ति सिद्धांत सूत्र के तात्पर्य का आधार है। इसी सिद्धांत के अनुसार भगवान स्वयंभू ने आर्यों के कल्याण के लिए वेदों के विभिन्न सूक्तों में आयुर्वेद के उपदेशों का विवेचन किया है, कि ‘किस प्रकार प्राणिमात्र विभिन्न औषधियों से आयु और आरोग्य का संरक्षण कर दीर्घायु प्राप्त कर सकता है, एवं यक्ष्मा जैसे भयंकर रोगों से छुटकारा पा सकता है।’
किन्तु वेद या वेदवाणी सभी के लिए सुलभ नहीं हैं। सूत्र रूप में कहे गए इन गूढ़ सूक्तों और मंत्रों के गम्भीर अर्थ को समझ पाना भावी अल्पज्ञ संतानों के लिए कठिन है। इस भावना से प्रेरित होकर, सम्पूर्ण जगत के कल्याण की इच्छा रखने वाले आत्रेय, भारद्वाज, काश्यप, पाराशर, सुश्रुत आदि महर्षियों ने इन वेद सूक्तों के विस्तृत व्याख्यान के रूप में आयुर्वेदिक संहिताग्रंथों की रचना की थी। इनमें से कुछ ग्रंथ समय के साथ लुप्त हो गए हैं। वर्तमान में केवल अत्रिसंहिता, भेलसंहिता, काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता आदि थोड़े से संहिता ग्रंथ उपलब्ध हैं।
वेदों की तरह इन संहिताओं का अर्थ भी गहरा है, और मनुष्यों की बुद्धि और बल में लगातार हो रहे हास को देखते हुए, वाग्भट्ट, वृन्द, वंगसेन, चक्रपाणि, शार्ङ्गधर, विजयरक्षित, श्री कण्ठदत्त, हेमाद्रि, चन्द्रनन्दन, अरुणदत्त, डल्हण, भावमिश्र आदि अनेक आचार्यों ने इन संहिताओं पर व्याख्यायें और स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की। इन धान्वंतर, आत्रेय और सिद्ध संहिता ग्रंथों के साथ-साथ भगवान शंकर के सिद्ध ग्रंथों का भी अवतरण हुआ। धान्वंतर-आत्रेय संप्रदायिक ग्रंथों में केवल वनौषधियों द्वारा चिकित्सा का वर्णन है, जबकि सिद्ध संप्रदायिक ग्रंथों में पारदादि रसो, स्वर्ण आदि धातुओं, हीरक आदि मणियों का विशेष महत्व है।
सारांश यह है कि उपरोक्त सभी ग्रंथ संस्कृत में अपने-अपने विषयों का वर्णन करते हैं। धान्वंतर शल्य चिकित्सा (Surgery), आत्रेय काय चिकित्सा (Medicines) और सिद्ध रसायन शास्त्र (Chemistry) के पथप्रदर्शक होते हुए भी वे महात्मा-जन पारस्परिक हस्तक्षेप नहीं करते थे और न ही वर्तमान की तरह एक-दूसरे को देखकर कुढ़ते या चिढ़ते थे
बल्कि उनमें परस्पर बड़ा आदरभाव था। अपने शास्त्र के अधिकार की बात न होने पर वे स्पष्ट कहते थे कि यह इस शास्त्र का विषय नहीं, बल्कि अमुक शास्त्र का विषय है। उदाहरणार्थ – शस्त्र क्रिया साध्य विषय का पूरा वर्णन करने के बाद औषधि विषय के प्रारंभ में ही महर्षि सुश्रुताचार्य कहते हैं कि – ‘पराधिकारे न विस्तरोक्ति’ अर्थात यह काय चिकित्सा शास्त्र का विषय है, इसलिए मैं यहां विस्तार नहीं करना चाहता। इसी प्रकार चरकाचार्य ने भी अपने संहिता ग्रंथों में केवल औषधि साध्य बातें ही कही हैं। शस्त्रक्रिया साध्य रोग के विषय में उन्होंने स्पष्ट कह दिया है कि ‘अत्र धान्वंतराणामेवाधिकारः’ अर्थात इस शस्त्रक्रिया के विषय में धान्वंतरि संहिता के अनुयायियों का ही अधिकार है। यह इस शास्त्र का विषय नहीं है।”