आयुर्वेद की परिभाषा, उत्पति और इतिहास भाग १
आयुर्वेद अत्यंत प्राचीन शास्त्र है। वास्तव में, प्राचीन आचार्यों ने इसे ‘शाश्वत’ कहा है और इसके लिए तीन अकाट्य युक्तियाँ दी हैं:
‘सोऽयमायुर्वेदः शाश्वतो निर्दिश्यते’ – आयुर्वेद शाश्वत है।
‘अनादित्वात्’ – यह अनादि है।
‘स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वात्’ – इसके स्वभाव में जन्मजात विशेषताएँ हैं।
‘भावस्वभावनित्यत्वात्’ – इसका स्वभाव निरंतर रहता है।
आयुर्वेद को अनादि मानने का कारण यह है कि जैसे आत्मा अनादि है, वैसे ही सृष्टि भी अनादि है। जैसा कि ‘आदिर्नास्त्यात्मनः क्षेत्र-पारम्पर्यमनादिकम्’ (च. शा. अ. १) में कहा गया है।सृष्टि की शुरुआत से ही जड़ और चेतन, दो प्रकार के तत्व रहे हैं। इन दोनों का संबंध समय से है, लेकिन जब तक चेतना का अनुबंध रहता है, उस अवधि को आयु कहा जाता है। उदाहरण के लिए: ‘शरीरेन्द्रियसश्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्। नित्यगश्वानुबन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते॥’ (च. सू. १)
आयु और वेद (ज्ञान) के सम्बन्ध में ज्ञान को आयुर्वेद कहा जाता है: ‘हिताहितं सुखं दुःखमायुस्तस्य हिताहितम्। मानञ्च तच्च यत्रोक्तमायुर्वेदः स उच्यते॥’ (च. सू. १)
मनुष्य या किसी भी प्राणी को सृष्टि के आरम्भ से ही अपने हित या अहित का ज्ञान होता आया है, अपनी आयु की वृद्धि और हानि करने वाली वस्तुओं का भी ज्ञान रहा है और नए-नए उपायों का अवलंबन या अनुसंधान करते आए हैं। इसलिए आयु और वेद दोनों हमेशा रहे हैं और रहेंगे। आयुर्वेद इसलिए नित्य है।
आयु के ऊपर प्रभाव डालने वाले पदार्थों के गुण हमेशा वही रहे हैं, जैसे अग्नि में दाहकत्व सदैव रहता है। प्राणी हमेशा उसके घातक प्रभाव से बचने और हितकारक प्रभाव के उपयोग के लिए सजग रहा है।
आयुर्वेद की नित्यता प्रमाणित होते हुए भी इसके सिद्धांतों का सुव्यवस्थित संकलन और ग्रंथ रूप में संग्रह बाद में हुआ। सभी प्राणियों को सभी विषयों का अनुभव नहीं होता। विशिष्ट व्यक्तियों ने बार-बार परीक्षा करके सिद्धांत स्थिर किए और इन्हीं को मन्त्र और सिद्धान्तकर्ता ऋषि कहा गया। सिद्धांतों का उपदेश समाज में फैलने लगा और इनका संकलनात्मक ग्रंथ निर्माण होने लगा। इस प्रकार, आयुर्वेद की उत्पत्ति मान्य है।
भगवान चरक ने भी कहा है:
‘नह्मायुर्वेदस्याभूस्वोरपत्तिरुपलभ्यते, अन्यत्रावशेधोपदेशान्याय, एतद्वै इयमधिकृत्योत्पत्तिमुपदिशन्त्येके’ (च. सु. ३०)
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद है, जिसकी निर्माणकाल ईसा के 3 हजार से 50 हजार वर्ष पूर्व तक मानी जाती है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के महत्वपूर्ण सिद्धांत विकीर्ण हैं। यज्ञ के कटे हुए सिर को जोड़ने, विश्पला की कटी टांग के स्थान पर लोहे की टांग लगाने जैसे विषयों का उल्लेख है।
यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी आयुर्वेदिक विषयों का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में शारीर शास्त्र, औषधि और चिकित्सा की विधियों का विस्तृत वर्णन है। इसलिए आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद माना जाता है। वेदों के बाद ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रंथों में भी आयुर्वेद का विकास हुआ है।
वेदों में अध्यात्म शास्त्र के साथ आयुर्वेदिक विषय भी बिखरे पड़े हैं। बाद के ऋषियों ने आयुर्वेद के विषयों का क्रमबद्ध संकलन कर कई संहिताओं का निर्माण किया और आयुर्वेद को कायचिकित्सा, शल्यतंत्र, शालाक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, भूतविद्या, विषतन्त्र, रसायन और वांजीकरण इन आठ भागों में विभक्त किया।
इन ग्रंथों की संख्या सैकड़ों में थी, लेकिन आज केवल अग्निवेशकृत और चरक तथा दृढबल द्वारा प्रतिसंस्कृत चरकसंहिता, नागार्जुन-प्रतिसंस्कृत सुश्रुतसंहिता (पूर्ण रूप में), वृद्धजीवक-प्रतिपंस्कृत काश्यपसंहिता और भेलसंहिता (खण्डित रूप में) उपलब्ध हैं। हारीतसंहिता भी उपलब्ध है लेकिन इसकी प्राचीनता संदिग्ध है। सुश्रुतसंहिता शस्यतन्त्रप्रधान और चरकसंहिता कायचिकित्साप्रधान ग्रंथ हैं। इनकी उपलब्धि इस बात का प्रमाण है कि ये अपने-अपने विषय के सर्वोत्तम ग्रंथ हैं और इसलिए इनका प्रचार हुआ।
इन ग्रंथों पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं और सैकड़ों संग्रहग्रंथों का निर्माण ईसा के बाद हुआ। इन टीकाओं और संग्रहग्रंथों में पूर्वोक्त संहिताओं और उनके रचनाकार आचार्यों के उद्धरण भी मिलते हैं। इससे लगता है कि इनमें से अनेक ग्रंथ आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व तक उपलब्ध थे।
इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक आयुर्वेद का विकास होता रहा। लेकिन पारस्परिक कलह, विदेशी आक्रमण, साम्प्रदायिक उन्माद आदि कारणों से भारतीय आयुर्वेद की प्रगति रुक गई और इसका बहुत ह्रास भी हुआ। आयुर्वेद अपने सम्पूर्ण अंगों को खोकर केवल कायचिकित्सा तक सीमित रह गया। यदि इसकी पूर्ववत् प्रगति होती रहती तो आज के नवीन आविष्कार आयुर्वेदज्ञों द्वारा किए जाते और ये आयुर्वेद के अंग होते। प्राचीन आयुर्वेद में इतनी प्रगति हो चुकी थी कि आज की विकसित पद्धतियाँ भी वहां तक नहीं पहुंच पाईं।
हालांकि आयुर्वेद की संतानें विदेशों में विकसित होकर अपने पूर्वज से नाता तोड़कर पृथक् मानती हैं और आयुर्वेद का उपहास करती हैं। फिर भी, चिकित्सा विज्ञान के मौलिक सिद्धांत आज भी वही हैं जिन्हें प्राचीन आचार्यों ने बताया था। उनकी प्रयोग विधि और साधनों में भले ही अंतर आया हो। यह कथन उन्मत्त-प्रलाप नहीं है; इसके समर्थन में अनेक अर्वाचीन वैज्ञानिकों और मनीषियों के वचन उद्धृत किए जा सकते हैं। निष्पक्ष और गंभीर मनन के बाद हर व्यक्ति इस कथन का समर्थन करेगा, लेकिन इसके लिए प्राचीन संहिताओं का आधुनिक शास्त्र से तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है।